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ऑपरेशन कैक्टस के 37 साल ... भारत ने कैसे बचाई थी मालदीव की लाज? जब राजीव गांधी के आदेश पर 16 घंटे में ढेर हुए विद्रोही, जानें

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माले: मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू जब सत्ता में आए थे, उस वक्त उन्होंने भारत विरोधी रवैया अवनाया था। हालांकि अब वो फिर से भारत के साथ रिश्ते को सामान्य करने में सफर रहे हैं, इसलिए इस, कहानी को दोहराना सही नहीं है। लेकिन उस कहानी को याद करना बिल्कुल जरूरी है, जब भारतीय सेना ने मालदीव की संप्रभुता की रक्षा की थी। भारत के लोगों को 'ऑपरेशन कैक्टस' को जरूर याद करना चाहिए, जानना चाहिए, ताकि हमें पता चले की हम कैसे अपने पड़ोसी देशों की मदद के लिए हर वक्त खड़े रहते हैं।

दरअसल, 3 नवंबर 1988 की सुबह मालदीव के इतिहास में एक काला अध्याय बनकर आई। बहुत छोटे से द्वीप देश मालदीव की राजधानी माले पर बड़ा हमला कर दिया गया है। हमलावर विदेशी भाड़े के लड़ाके थे, जिनका मकसद मालदीव की सरकार को गिराना था। यह हमला श्रीलंका स्थित उग्रवादी संगठन PLOTE यानि पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ तमिल ईल्लम ने किया था। हमलावरों की संख्या करीब 80 थी और उन्हें हमला करने के लिए माले लाने वाला मालदीव का ही एक कारोबारी था, जिसका नाम था अब्दुल्ला लुतुफी।
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मालदीव में भारत का ऑपरेशन कैक्टस
अब्दुल्ला लुतुफी, राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम की सरकार को उखाड़ फेंकना और सत्ता पर कब्जा जमाना चाहता था। मालदीव के पास उन दिनों अपनी कोई खास सैन्य शक्ति नहीं था और कुछ ही समय में हमलावरों ने सरकारी इमारतों, कम्युनिकेशन चैनलों और पुलिस मुख्यालय पर कब्जा कर लिया। राजधानी माले में अफरा-तफरी मच गई और गोलियों की आवाजें गूंजने लगीं। इस दौरान राष्ट्रपति गयूम किसी तरह अपनी जान बचाकर माले की गलियों में इधर-उधर सुरक्षित ठिकाने बदलते रहे। कई सरकारी अधिकारी बंधक बना लिए गए और आठ सुरक्षा कर्मियों की हत्या कर दी गई। स्थिति काफी बिगड़ चुकी थी और हालात हाथ से निकलता देख मालदीव ने फौरन विदेशी देशों से मदद की गुहार लगाई।


मालदीव ने मदद के लिए भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, सिंगापुर और अमेरिका से भी मदद मांगी। लेकिन भारत को छोड़कर किसी भी और देश से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। उस समय भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बिना किसी देरी के मालदीव की संप्रभुता की रक्षा का फैसला लिया, जिससे इतिहास का रुख हमेशा के लिए बदल गया। इसी दौरान भारत ने मालदीव की रक्षा के लिए 'ऑपरेशन कैक्टस' शुरू किया और ये इतिहास के सबसे बेहतरीन रेस्क्यू ऑपरेशन में शामिल हो चुका है।


आगरा से पैराशूट रेजिमेंट के कमांडो को दो हजार किलोमीटर दूर मालदीव में युद्ध लड़ने भेजा गया। कहा जाता है कि उस वक्त उन्हें तैयारी करने का भी वक्त नहीं दिया गया, क्योंकि मालदीव के पास वक्त नहीं था। आदेश मिलने के साथ ही भारतीय विमानों ने आधी रात से पहले मालदीव के हुलहुले एयरपोर्ट पर उतरकर सबसे पहले हवाई पट्टी को अपने कंट्रोल में ले लिया। इसके बाद भारतीय सैनिकों ने नौकाओं के जरिए माले की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया। भारतीय सैनिक, स्थानीय सुरक्षा बलों के साथ मिलकर भाड़े के सैनिकों पर जवाबी हमला किया। कुछ ही घंटों में राष्ट्रपति गयूम को भारतीय सेना ने सुरक्षित कर लिया और उसके अगले कुछ घंटे में राजधानी माले को पुरी तरह से हमलावरों से मुक्त करवा लिया गया। माले एक बार फिर से मालदीव की सरकार के कंट्रोल में आ गया।

जब हमलावरों ने व्यापारी जहाज कब्जे में ले लिया
राजधानी माले हाथ से निकलते ही भाग रहे हमलावरों ने एमवी प्रोग्रेस लाइट नाम के एक व्यापारी जहाज को हाईजैक कर लिया। उसमें 27 लोग सवार थे, जिन्हें बंधक बना लिया गया। लेकिन, भारतीय नौसेना के जहाज आईएनएस गोदावरी और आईएनएस बेटवा ने हिंद महासागर में उन्हें घेरकर आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया। सभी बंधक सुरक्षित छुड़ा लिए गए और बिना किसी और रक्तपात के विद्रोह को पूरी तरह नाकाम कर दिया गया। भारतीय सेना ने काफी प्रोफेशनल तरीके से रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया था और मालदीव की सरकार को बड़ी मुसीबत से बचा लिया था। ये दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकजुटता का सबसे नायाब उदाहरण है। हालांकि हमलावरों ने भारतीय सेना के पहुंचने से पहले करीब 19 लोगों की हत्या कर दी थी, फिर भी भारत ने मालदीव में बड़ी संख्या में लोगों की मौत को रोक दिया था।

मालदीव में भारत के चलाए गये ऑपरेशन की पूरी दुनिया में तारीफ की गई। यूनाइटेड नेशंस, अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देशों ने इसे भारतीय महासागर क्षेत्र में स्थिरता बनाए रखने की ऐतिहासिक पहल बताया। मालदीव की जनता ने भारत के गहरा आभार जताया था और इससे दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग और आपसी विश्वास का नया अध्याय शुरू हुआ। मालदीव अब हर साल 3 नवंबर को विजय दिवस मनाता है। इस दिन उन सभी वीरों को श्रद्धांजलि दी जाती है जिन्होंने मालदीव की आजादी और लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। इस दौरान भारत को उस सहयोगी राष्ट्र के रूप में याद किया जाता है जिसने संकट की घड़ी में मित्रता का सच्चा परिचय दिया।
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