यह 1970 के दशक की बात है, जब भारत का मुकाबला अमेरिका, चीन और पाकिस्तान वाले एक अमित्र त्रिपक्षीय गुट से था। इस बार यह खुले तौर पर शत्रुतापूर्ण नहीं है- और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इस गुट में एक जोकर की तरह हैं- लेकिन भारत को चिंता करनी चाहिए।
इस लेखक ने महीनों पहले इस संभावना की ओर इशारा किया था। 1970 के दशक में, भारत के पास इस खतरे का मुकाबला करने के लिए एक दृढ़ सहयोगी के रूप में सोवियत संघ था। आज चीन के साथ अपनी घनिष्ठता को देखते हुए रूस से उसी तरह के समर्थन की उम्मीद नहीं की जा सकती।
दक्षिण कोरिया में हाल ही में हुई ट्रंप-शी बैठक पर मीडिया की तीखी प्रतिक्रिया पर एक नजर डालें। 'फाइनेंशियल टाइम्स' की हेडलाइन इस तरह थी, 'अमेरिका-चीन व्यापार तनाव में अस्थायी विराम' जिसमें चीनी वस्तुओं पर अमेरिकी टैरिफ में एक और कमी का जिक्र था। लेकिन 'द गार्जियन' के अनुसारः 'अमेरिका को पता चल गया है कि धौंस जमाने वालों को भी धमकाया जा सकता है' जो बिल्कुल सही है।
नरेंद्र मोदी की तरह डरकर और नजरों से ओझल होने के बजाय डॉनल्ड ट्रंप के सामने डटकर खड़े होकर शी जिनपिंग ने यह संदेश दिया कि ट्रंप चीन के साथ व्यापार या संबंधों की शर्तें एकतरफा तौर पर तय नहीं कर सकते। ट्रंप को यह समझने में थोड़ा समय लगा कि 100/145 प्रतिशत टैरिफ की उनकी धमकियों के बावजूद चीन को धमकाया नहीं जा सकता; अंततः उन्होंने यह भी समझ लिया कि अमेरिका की तरह चीन के पास भी अपनी बात पर अड़े रहने के लिए पर्याप्त ताकत है।
इसीलिए दक्षिण कोरिया में शी जिनपिंग के साथ बैठक से पहले, ट्रंप ने ट्रुथ सोशल पर लिखा, 'जी2 की बैठक जल्द ही होगी।' इस नए सूत्रीकरण- 'जी2'- ने सभी को चौंका दिया, जैसा कि निश्चित रूप से इरादा था, लेकिन इसने शी जिनपिंग को यह भी बताया कि अमेरिका अब चीन को समान स्तर पर संबोधित कर रहा है। 'द डिप्लोमैट' ने लिखाः 'शी जिनपिंग के साथ अपनी बैठक को 'जी2' मुलाकात बताना कम-से-कम चीन को समान स्तर पर मान्यता देने का संकेत देता है। यह एक द्विपक्षीय व्यवस्था की इच्छा, चाहे यह कितनी भी अस्पष्ट क्यों न हो, दिखाती है जिसमें वाशिंगटन और बीजिंग मिलकर विश्व मामलों का प्रबंधन करें।'
अगर वाशिंगटन और बीजिंग वास्तव में करीब आते हैं, तो अमेरिकी प्रशासन के लिए भारत की उपयोगिता कम हो जाएगी, और अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया का क्वाड समूह- जो चीन को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया एक गठबंधन है- निरर्थक हो जाएगा।
जुलाई 1971 में जब शीत युद्ध चरम पर था, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर, चीनी प्रधानमंत्री झाउ एन लाई से मिलने के लिए पाकिस्तान से गुप्त रूप से चीन गए थे। इसका उद्देश्य सोवियत संघ को उकसाना था। 1960 के दशक से ही सोवियत संघ की अपने साथी कम्युनिस्ट शक्ति चीन के साथ संबंध तेजी से बिगड़ रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रीय अभिलेखागार में सार्वजनिक किए गए अभिलेखों के मुताबिक, 'पाकिस्तानी चैनल ने दिसंबर 1970 में झाउ का एक महत्वपूर्ण संदेश प्रसारित किया था।'
बाद में, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय कूटनीति ने अमेरिका और भारत के बीच संबंधों को मजबूत किया और इस्लामाबाद के साथ वाशिंगटन की साझेदारी को भी लगभग समाप्त कर दिया। मोदी को लेकर ट्रंप की नाराजगी और भारत के प्रति उनकी स्पष्ट दुश्मनी ने पाकिस्तान को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
पाकिस्तान की अब अमेरिका और चीन- दोनों के साथ रणनीतिक साझेदारी है, और अगर चीन-अमेरिका संबंध बेहतर होते हैं, तो उसे इस बात से ज्यादा खुशी ही होगी क्योंकि उसे दोनों में से किसी एक को चुनना नहीं पड़ेगा। लेकिन अपने सदाबहार दोस्त चीन और अब अमेरिका का आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य सहायता के लिए साथ होना, निस्संदेह भारत के प्रति उसके हौसले को और मजबूत करेगा।
ऐसे में, 10 साल का अमेरिका-भारत रक्षा ढांचागत समझौता अमेरिका के खरगोश के साथ दौड़ने और शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करने जैसा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में एक्स पर लिखा, 'रक्षा हमारे द्विपक्षीय संबंधों का प्रमुख स्तंभ बना रहेगा।' लेकिन अमेरिकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ द्वारा कहे गए 'समन्वय, सूचना साझाकरण और तकनीकी सहयोग' से क्या हासिल होगा, अगर भारत की मुख्य सैन्य चिंताएं, यानी चीन और पाकिस्तान- दोनों ही वाशिंगटन के दोस्त हैं?
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