उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अवध के नवाब मोहम्मद अली शाह की बनाई एक इमारत में 90 साल के फै़याज़ अली ख़ान पहुँचे हैं.
सफे़द कुर्ता पहने फै़याज़ अली ख़ान को चलने में मुश्किल हो रही है, हाथ कांप रहे हैं, लेकिन आँखों की चमक अब भी बरकरार है. वह यहाँ अपना नौ रुपये सत्तर पैसे का वसीक़ा लेने आए हैं.
वसीक़ा यानी अवध के नवाबों से जुड़े लोगों को मिलने वाली पेंशन.
वसीक़ा शब्द फ़ारसी भाषा से आया है, जिसका मतलब होता है एक लिखित समझौता. नवाबों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए ऐसे समझौते की वजह से यह परंपरा शुरू हुई थी.
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असल में अवध के नवाबों ने समय-समय पर भारत पर शासन करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी के पास रक़म जमा कराई थी या क़र्ज़ दिए थे, इस शर्त के साथ कि उस पर मिलने वाला ब्याज उनके ख़ानदान और उनसे जुड़े लोगों को पेंशन की शक्ल में दिया जाएगा.
1857 की लड़ाई के बाद 1874 में ईस्ट इंडिया कंपनी बंद हो गई. सात दशक बाद 1947 में भारत आज़ाद हुआ. अंग्रेज़ चले गए, मगर यह परंपरा आज भी जारी है.
हालाँकि अवध के अलावा देश के कुछ और हिस्सों, जैसे केरल और राजस्थान में भी पूर्व रियासतों से जुड़े परिवारों को इस तरह की पेंशन मिलती रही है.
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फैयाज़ अली ख़ान शाही ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते हैं. वह 13 महीने बाद वसीक़ा लेने आए हैं, इसलिए उन्हें 130 रुपये मिले हैं.
वह कहते हैं, "ये वसीक़ा हमें परदादा, परनानी के ज़माने से मिल रहा है. इतना कम है कि मैं साल भर बाद ही लेने आता हूँ."

अपनी उम्र की वजह से फ़ैयाज़ अब अकेले नहीं आ पाते. उनके बेटे शिकोह आज़ाद उनके साथ आए हैं.
शिकोह कहते हैं, "अफ़सोस की बात ये है कि हुसैनाबाद ट्रस्ट से नौ रुपये सत्तर पैसे लेने के लिए मुझे अपनी गाड़ी से पाँच सौ रुपये का पेट्रोल ख़र्च करना पड़ रहा है. कई बार हमने वसीक़ा बढ़ाने की माँग की लेकिन सुनवाई कभी नहीं हुई."
वसीक़ा बाँटने की शुरुआत 1817 में हुई थी. इतिहासकार डॉ. रौशन तक़ी बताते हैं, "अवध के नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी बहू बेगम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दो किस्तों में क़रीब चार करोड़ रुपये दिए थे, इस शर्त पर कि उनके रिश्तेदारों और उनसे जुड़े लोगों को हर महीने पेंशन दी जाए." इसे अमानती वसीक़ा कहा जाता है.
उत्तर प्रदेश सरकार के वसीक़ा अधिकारी एस.पी. तिवारी के मुताबिक़, "आज़ादी के वक़्त बहू बेगम के तक़रीबन तीस लाख रुपये कोलकाता रिज़र्व बैंक में जमा थे. पहले यह रक़म कानपुर रिज़र्व बैंक भेजी गई और अब क़रीब 26 लाख रुपये लखनऊ के सिंडिकेट बैंक में हैं. इसी के ब्याज से वसीक़ा दिया जा रहा है."
नवाबों के क़र्ज़ और मौजूदा व्यवस्था
बहू बेगम के बाद भी नवाबों ने अलग-अलग वक़्त पर ईस्ट इंडिया कंपनी को क़र्ज़ दिया.
डॉ. तक़ी कहते हैं, "नवाब वज़ीर ग़ाज़ीउद्दीन हैदर और उनके बेटे नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने तक़रीबन चार करोड़ 'पर्पेचुअल लोन' कंपनी को दिया था. इसका मतलब था कि असल रक़म कभी वापस नहीं होगी, लेकिन इसका ब्याज उनके वारिसों और उनसे जुड़े लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता रहेगा."
वसीक़ा दफ़्तर में रखे वसीक़ा मैनुअल के मुताबिक़, नसीरुद्दीन हैदर के उत्तराधिकारी किंग मोहम्मद अली शाह ने भी ब्रिटिश ट्रेज़री में बारह लाख रुपये जमा किए थे.
आज़ादी के बाद लखनऊ में आज भी क़रीब 1200 लोगों को वसीक़ा मिल रहा है. पिक्चर गैलरी में इसके लिए दो दफ़्तर बने हैं, एक हुसैनाबाद ट्रस्ट और दूसरा उत्तर प्रदेश सरकार का वसीक़ा दफ़्तर.
सरकारी दफ़्तर से वसीक़ा अब सीधे ऑनलाइन बैंक खातों में भेजा जाता है, जबकि हुसैनाबाद ट्रस्ट से अब भी नक़द दिया जाता है. दोनों दफ़्तर मिलाकर सालाना क़रीब पाँच लाख साठ हज़ार रुपये का वसीक़ा बाँटते हैं.
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कई लोगों को दोनों दफ़्तरों से वसीक़ा मिलता है, लेकिन दोनों मिलाकर भी रक़म दस रुपये तक नहीं पहुँच पाती. शाहिद अली ख़ान, जो पेशे से वकील हैं, उनके दादा नवाब मोहम्मद अली शाह के वज़ीर थे.
शाहिद बताते हैं, "मुझे एक वसीक़ा तिमाही में चार रुपये अस्सी पैसे मिलता है और दूसरा मासिक वसीक़ा हर महीना तीन रुपये इक्कीस पैसे का है."
इतना कम वसीक़ा पाने पर शाहिद कहते हैं, "इस वसीक़े को पैसों से आँका नहीं जा सकता, ये तो हमारी पहचान है जो करोड़ों रुपयों से बढ़कर है. चंद लोगों को ही यहाँ वसीक़ा मिलता है."
वसीक़ा भले ही कम हो, लेकिन वसीक़ेदार आज भी इसे लेने ज़रूर आते हैं, क्योंकि वे इसे नवाबों की निशानी और एक ऑनर मानते हैं.

शाहिद भी वसीक़े की रक़म को तबर्रुक (प्रसाद) समझते हैं. वह कहते हैं, "मैं वसीक़ा साल में एक बार मोहर्रम के पंद्रह–बीस दिन पहले लेने आता हूँ ताकि ये पैसा मैं मुहर्रम के काम में लगा सकूँ. साल भर मैं इसलिए नहीं लेता हूँ कि अगर एक पाई, एक पैसा भी मुझसे किसी और मद में ख़र्च हो जाएगा तो मैं गुनहगार बन जाऊँगा."
शिकोह आज़ाद कहते हैं, "वसीक़े के पैसे हमारे पानदान का ख़र्च नहीं निकाल सकते, न इससे हमारे घर का ख़र्च चलेगा और न ही हमारे बच्चों की पॉकेट मनी हो पाएगी. लेकिन हमें फ़ख़्र है कि हमारे पूर्वजों ने यहाँ हुकूमत की. अगर सिर्फ़ एक पैसा भी मिले तो भी हम एक हज़ार रुपये ख़र्च करके वसीक़ा लेने ज़रूर आएंगे."
कई लोग विदेशों से भी वसीक़ा लेने आते हैं. शिकोह बताते हैं, "मेरे कज़न ऑस्ट्रेलिया से आए और दो साल का वसीक़ा लेकर गए. अमेरिका और इंग्लैंड से भी लोग आते हैं."
हालाँकि, सभी वसीक़ेदारों की स्थिति इतनी अच्छी नहीं है. सत्तर साल के एजाज़ आगा, जो ख़ुद को मोहम्मद अली शाह का वारिस बताते हैं, कहते हैं, "हमारे पास कई वसीक़े थे, लेकिन परेशानी में हमने कुछ वसीक़े रिश्तेदारों में बेच दिए. अब तीन महीने में सिर्फ़ उन्नीस रुपये अस्सी पैसे का वसीक़ा मिलता है, जिसे हम नज़र-नियाज़ (चढ़ावा) के कामों में लगाते हैं."
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डॉ. तक़ी वसीक़ा कम होने की कई वजह बताते हैं, "अगर किसी नवाब को पाँच सौ रुपये का वसीक़ा मिलता था और उस नवाब के पाँच बेटे हैं तो नवाब के न रहने के बाद वसीक़ा पाँच हिस्से में बँट जाएगा और सबको सौ–सौ रुपये वसीक़ा मिलेगा. इसी वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी वसीक़ा घटता गया. छठी–सातवीं नस्ल आते–आते किसी के हाथ में पाँच रुपये आएंगे तो किसी के हाथ दस रुपये. दूसरी वजह ये है कि पहले वसीक़ा चाँदी के सिक्कों में मिलता था, जो सवा तोले का होता था. जब वसीक़ा चाँदी के सिक्कों की जगह रुपयों में मिलने लगा तो वसीक़ा बहुत कम हो गया."
फ़ैयाज़ अली ख़ान भी कहते हैं, "हमें वसीक़ा नवाबों के दौर से चार फ़ीसदी ब्याज पर ही मिल रहा है जबकि आज बैंक में ब्याज काफ़ी बढ़ गया है."
अब कम वसीक़े को लेकर आवाज़ें उठनीं भी शुरू हो गई हैं. शाहिद अली ख़ान कहते हैं, "वसीक़ा बढ़ाने के लिए लड़ाई चल रही है. मैं ख़ुद इस मामले में हाई कोर्ट जा रहा हूँ. हम अपना तर्क रखेंगे कि आख़िर क्यों अब चाँदी के सिक्कों में वसीक़ा नहीं दिया जा रहा. और अगर चाँदी में नहीं दे सकते, तो कम से कम उतनी रक़म तो दी जाए जितनी आज चाँदी की क़ीमत है."
अवध के नवाबों के जाने के क़रीब 170 साल बाद आज भी वसीक़ा तो बँट रहा है लेकिन अब रौनक़ कम हो गई है. मसूद अब्दुल्ला, जिनके ख़ानदान को वसीक़ा मिलता आ रहा है, याद करते हैं, "पहले जब लोग वसीक़ा लेने आते थे तो एक अलग ही मंज़र रहता था. ऐसा लगता था कि एक मेला लगा हुआ है. तरह-तरह के वहाँ शर्बत बिकते थे, गर्मी का मौसम है तो फ़ालसे और तरबूज़ का शर्बत मिलता था. ठंड में कश्मीरी चाय मिलती थी. इक्के, टाँगों, फ़िनस, टमटम से लोग आते थे. हमें बचपन की याद है, रिक्शों में, टाँगों में, फ़िनस में पर्दे बँधे रहते थे, पर्दानशीन औरतों के लिए. अब ऐसा सिलसिला नहीं रहा."
पुराना वक़्त याद करते हुए फ़ैयाज़ अली कहते हैं, "मेरे वालिद बताया करते थे कि पहले वसीक़ा बँटने का नज़ारा बिल्कुल मेले जैसा होता था. तरह–तरह के खोमचे वाले रहते थे, बाज़ार सी लग जाती थी. खाने–पीने का सामान मिलता था और पिक्चर गैलरी में सैकड़ों वसीक़ेदार जमा होते थे. अब वो माहौल नहीं रहा."
आज भी सरकार की तरफ़ से वसीक़ा बाँटने पर उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री दानिश अंसारी ने कहा, "वसीक़े की परंपरा अवध के नवाबों के दौर से चली आ रही है. आज भी नवाबों के ख़ानदान से जुड़े लोग मौजूद हैं. इसका एक कॉर्पस अमाउंट सरकार के पास है, कुछ सरकारी नीतियों के हिसाब से वसीक़ा दिया जा रहा है."
कुछ लोग इन वसीक़ों को सामंती दौर की बची-खुची निशानी मानते हैं और सवाल उठाते हैं कि आज के समय में इनका कोई औचित्य नहीं है.
लेकिन समर्थकों का कहना है कि यह पेंशन केवल पैसे की बात नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक वादा और सम्मान का हिस्सा है जिसे आसानी से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
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